Monday, 31 March 2014

प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था और नये भारत पर एक चिंतन - नंदा फाउंडेशन

प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था और नये भारत पर  एक चिंतन - नंदा फाउंडेशन

    मानवीय सभ्यता विकास की बुनियाद ही मानव को मनुष्य बनाने में  निर्माण में बुनियादी  शिक्षा का महत्व महत्वपूर्ण है। आजादी के बाद भारत इस दिशा में तकनीकी विज्ञानं तक सफल हुआ है और निरंतर अपने अपने स्तरों पर शिक्षा विज्ञानियों ने  करिशमाई प्रतियोगिता को विजय पथ की और बढ़ाया है।  हमारी सरकारें  इस दिशा में जो भी कर रही बहुत कुछ कर रही हैं पर उसका मूल्यांकन करने पर जोर नही है जिससे कि गुणवत्ता को लाने और इस दिशा में लगे लोगों को  मनोबल देने में रास्ते मिल सकें। जिसे हम नये भारत की पीढ़ी के लिए जवाबदेही का सपस्ट रुख  रख सकें।
     हाल के वर्षों में कम्प्यूटर युग आते आते कस्बों तक आगे बढ़ने की होड़ भले ही कमाई के जरियों को लेकर हो  प्रतिसपर्धा और  शिक्षा के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है।  आज के माता पिताओं में अपनी हैसियत अनुसार  अपने बच्चों को ऊँची से ऊँची महंगी तालीम दिलाने के नाम पर प्रगति भी हो ही रही है। गावों तक कम्प्यूटर जरुर पहुंचे हैं मगर सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता रसातल की ओर जा रही है। ऊंचे दर्जे के स्कूलों को छोड़ दें तो कमोबेश सभी निजी और सरकारी प्राथमिक-माध्यमिक स्कूलों की शिक्षा दिशाहीन होती जा रही  है। इसकी सबसे बड़ी वजह है शिक्षा व्यवस्था की सबसे अहम कड़ी यानी शिक्षक की हर स्तर पर हो रही जवाबदेहियों के प्रति अनदेखी हो रही है । सरकारी स्कूलों में शिक्षक की स्थिति बाबू से भी खुद को ऊँचा मानने वाले की हो  गई है।

राज्य सरकारों को देखें तो उनका ध्यान  सिर्फ स्कूलों की संख्या बढ़ाने पर है,. लेकिन ऐसी दोषपूर्ण और गुणवत्ताविहीन शिक्षा वयस्क हो रहे बच्चों और उनके अभिभावकों में गहरा  असंतोष पैदा कर रही है। शिक्षकों ने भी अपना ध्येय सिर्फ वेतन तक  या अन्य जरियों से अतिरिक्त कमाइयों ट्यूशन मार्किट तक सवयम को गरुत्व के लेबिल को  सीमित कर लिया है। दरअसल, प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी बना दी गई है कि उन पर शिक्षण के अलावा दूसरे सरकार ने आंकलन के  कामों का बोझ लाद दिया गया है। इसमें खासकर  मिड-डे मील के रखरखाव, भोजन बनने और वितरण में ही शिक्षकों का ज्यादातर समय बीतता है।कई सर्वेक्षणों में यह नतीजा सामने आया है कि शिक्षकों को इस बात का डर लगा रहता है कि कहींमिड-डे मील की गुणवत्ता खराब न हो जाए और इसके लिए उन्हें दोषी न ठहरा दिया जाए। दूसरा यह कि प्राथमिक शिक्षकों को सरकार भारी भरकम वेतन तो दे रही है मगर फिर भी उनमें अध्यापन के प्रति कोई लगाव दिखाई नहीं देता जिससे गुरु शिष्य के मानवीय संबंध में केवल अनौपचारिकता ही रह गई है । यहां सबसे बड़ी चूक है शिक्षकों की जवाबदेही का अभाव को तैयार न किया जाना भी शामिल है।
    आदर्श कार्य को सामने रख कर सेवा द्रस्टी से  सरकार को समझना होगा कि शिक्षकों का मसला विकास प्रक्रिया मजबूती में अन्य पेशे से बिलकुल अलग है । डॉक्टर तो शहरों में स्थित मेडिकल कॉलेजों से ही निकलते हैं मगर शिक्षा व्यवस्था स्थानीय माहौल में ढली होनी चाहिए। इस मामले की तह में जाने के लिए  सरकार के पास ऐसा कोई निगरानी या जांच तंत्र नहीं है जो बच्चों की क्षमता और पढ़ाई के स्तर का स्वतंत्र और निष्पक्ष आकलन कर सके।
 इस मुद्दे को लेकर देखा जाए तो  तमाम गैर सरकारी संगठन ही नमूनों के आधार पर इस काम में जुटे हैं। कुछ गेर सरकारी संस्थाओं ने जिस तरह प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की पोल खोली है, वह आश्चर्यजनक है। कक्षा तीन का छात्र अगर जोड़-घटा जैसी चीजें भी न कर पाए या उसे पांचवी में पहुंचने तक अपना सही नाम लिखने की  एबीसीडी भी न आती हो तो क्या फायदा अरबों रुपये के संसाधन झोंकने का।
गौरकरने लायक यह है कि -
अंतरराष्ट्रीय संगठन पीसा की रिपोर्ट में भी सरकारी स्कूलों के ब्च्चों के निम्न बौद्धिक स्तर का खुलासा किया गया है। वास्तव में किसी भी काम का बेहतरीन परिणाम उसके प्रति ईमानदारी, नैतिक-मानसिक जुड़ाव से तय होता है। अध्यापन कार्य तो सीधे तौर पर इसी पर निर्भर है। शिक्षक कितना भी पढ़ा लिखा हो, अध्यापन की कुशलता का पैमाना छात्रों की सीखने और समझने की क्षमता को आंक कर ही तय किया जा सकता है। यह प्रत्यक्ष है कि आकर्षक वेतन और आरामदायक व गैर जवाबदेही का माहौल देखकर लोगों में सरकारी शिक्षक बनने की होड़ सी लगी है। ठीक-ठाक वेतन के लालच में 100-150 किमी दूर से शिक्षक दूरदराज के गांवों में आ तो रहे हैं, लेकिन नतीजा शून्य है। अध्यापकों में उन गरीब ग्रामीण बच्चों का जीवन सुधारने की कोई बेचैनी नहींहै। सरकार ने यहीं गलती की।

प्राथमिक स्कूलों के लिए पंचायत या ब्लॉक स्तर पर ही शिक्षकों की नियुक्ति करनी चाहिए थी। अगर पंचायत या ब्लॉक का ही शिक्षक होता तो उस पर स्थानीय दबाव होता और उन बच्चों से जुड़ाव होता। यहीं गांधी जी की ग्राम स्वराज की अवधारणा की आत्मा थी, जिसका सरकार ने नये नये प्रयोग अवसरों के चलते गला घोंट दिया। स्थानीय शिक्षक होने का एक लाभ यह भी है कि अभिभावकों और स्थानीय पंचायत के सदस्य एक अनौपचारिक निगरानी और शिकायत निवारण तंत्र की तरह काम करते। अब समय आ गया है कि केंद्र व राज्य सरकारें अपने स्तर पर निगरानी तंत्र स्थापित करें। लेकिन उसका कार्यक्षेत्र सिर्फ अध्यापन और छात्रों के बौद्धिक स्तर के आकलन तक ही सीमित रखना होगा। वरना प्रशासनिक तंत्र के साथ उलझाव बना रहेगा।
   यहाँ  गौर करना जरूरी है कि  इस तंत्र का स्वायत्त और गैर सरकारी होना बहुत जरूरी है, जिससे हकीकत सामने आ सके। इस तंत्र पर एक निश्चित समयांतराल में जिला स्तर पर अपनी रिपोर्ट सौंपने की जिम्मेदारी होनी चाहिए। दरअसल हर राज्य और यहां तक कि क्षेत्रीय स्तर पर जरूरतें और समस्याएं अलग-अलग हैं, इसलिए एक पैमाने के आधार पर सबका आकलन नहीं किया जा सकता। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए कम से कम राज्य स्तर पर समान पाठ्यक्रम और अध्यापन पद्धति की जरूरत है। इस निगरानी तंत्र के दायरे में निजी स्कूलों को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि अब क्वांटिटी नहीं क्वालिटी पर जोर देने का वक्त है।
    देश मूल्य आधारित  शिक्षा व्यवस्था पर जोर देने के लिए दुनिया को ललकारना चाहता है , कलगी धर ट्रस्ट अकाल अकादमी सहित अनेक विद्द्वान इस और जुट चुके हैं गुलज़ारीलाल नंदा फाउंडेशन के नैतिक ज्ञान अभियान मंच पर पूर्व प्रधानमंत्री नंदा की स्मृति विश्व के मानवता के वैज्ञानिकों को मूल्य आधारित  शिक्षा महत्व पर सर्व धर्मो को प्रोत्साहित करने के लिए इस वर्ष २०१४ में एक संयुक्त अभियान की तैयारी है। मगर भारत सरकार को अपनी पैरवी दिखाते हुए यह विचार करना ही होगा कि  शिक्षा के गुणात्मक विकास के लिए वह भी कुछ खास करेगी।--- के आर अरुण चेयरमेन, गुलज़ारीलाल नंदा फाउंडेशन दिल्ली
इ मेल - alertnews100@gmail.com

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